Monday, 28 November 2011

सब से जीत कर भी दुनिया इस से हारी......


 
मान नहीं पाती हूँ ये सच
बात नहीं होगी कभी अब

तुम इस कदर दिल में समाये हो
जज्बातों पे छाये हो
आंसू हो या सपने
तुम्ही , तुम हो इन नैनो में
हर पल लगता है ऐसे
तुम अभी उठ कर गए जैसे

मन कड़ा करती हूँ
दिल पे पत्थर रखती हूँ
अभ्यस्त हंसी हंसती हूँ
सब कुछ समझती हूँ
फिर भी नहीं रोक पाती खुद को
न आने वाले के इंतज़ार से
कभी न होने वाले इकरार से
अनदेखे पे ऐतबार से
और तड़पती हूँ उस पल को याद कर
जो कभी जिया ही नहीं
जो कभी हुआ ही नहीं

अस्पष्ट सी प्रतिध्वनियों में डूबता उतराता ये मन
कहीं खो न दे वो संजोये सपन
क्या एक छवि पे हो निर्भर होगा व्यर्थ ये अमूल्य जीवन ???
बात करनी पड़ेगी पहले खुद से
तुम मिल ही जाओगे कहीं मुड़ के

स्वयं से मिलने का भय ही है सबसे भारी

सब से जीत कर भी दुनिया इस से हारी

No comments: