Monday 19 September 2011

यह वर्षा ॠतु की संध्या है....

   
यह वर्षा ॠतु की संध्या है,
मैं बरामदे में कुर्सी पर
घिरा अँधेरे से बैठा हूँ
बँगले से स्विच आँफ़ सभी कर,
उठे आज परवाने इतने
कुछ प्रकाश में करना दुष्कर,
नहीं कहीं जा भी सकता हूँ
होती बूँदा-बाँदी बाहर।

उधर कोठरी है नौकर की
एक दीप उसमें बलता है,
सभी ओर से उसमें आकर
परवानों का दल जलता है,
ज्योति दिखाता ज्वाला देता
दिया पतिंगों को छलता है,
नहीं पतिंगों का दीपक के
ऊपर कोई वश चलता है।

है दिमाग़ में चक्कर करती
एक फ़ारसी की रूबाई,
शायद यह इकबाल-रचित है
किसी मित्र ने कभी सुनाई;
मेरे मनोभाव की इसके
अंदर है कुछ-कुछ परछाई।

’दिल दीवाना, दिल परवाना,
तज दीपक लौ पर मँड़राना,
कब सीखेगा पाँव बढ़ाना
उस पथ पर जो है मर्दाना।
ज्वाला है खुद तेरे अंदर,
जलना उसमें सीख निरंतर,
उस ज्वाला में जल क्या पाना
जो बेगाना, जो बेगाना।’१




१ दिला नादानिये परवाना ताके,
नगीरी शेवए मर्दाना ताके,
यके खुद राज़ सोज़ें ख़ेसतन सोज,
तवाफ़े आतिशे बेगाना ताके।
 
~ हरिवंशराय बच्चन ~