Friday, 11 November 2011

अगर आप समझना चाहते हैं प्रेम की परिभाषा...



हम भारतीयों ने कुछ ऐसे शब्द खो दिए हैं कि जिनकी हानि में अब हम परेशान हो रहे हैं। एक शब्द है प्रेम। आजकल किसी से जब प्रेम की बात करो तो सारा वार्तालाप वासना के आसपास घूमने लगता है। प्रेम का अर्थ लेन-देन, अपेक्षा मान लिया गया है। 



जिन्हें प्रेम समझना हो, वे अपने जीवन में भक्ति उतारने की तैयारी करें। प्रेम और भक्ति मिला-जुला मामला है। प्रेम दो बातों से जीवन में सरलता से उतरता है नाम और समर्पण। परमात्मा का नाम मन ही मन लेते रहें और उसके प्रति समर्पण का भाव रखें। इसके लिए सत्संग करते रहें। सत्संग यानी प्रेम की चर्चा।


मीरा ने कहा था - असाधुओं की संगति में नाम होने से तो साधु संगति में बदनाम हो जाना अच्छा। एक संत हमारी तरफ आंख उठाकर देख ले तो काफी है, बजाय सारा समाज हमारी प्रशंसा करे। प्रेम प्रार्थना का प्रथम रूप है। भक्ति की शुरुआत है। प्रेम पाठशाला है परमात्मा की। इसी से सीखी जाती है प्रार्थना। पति-पत्नी बच्चों के साथ बैठकर प्रेम से ध्यान में उतरें।



प्रेम में मिल्कियत नहीं होती। अभी सब गड़बड़ है। पति-पत्नी के बीच एक-दूसरे पर कब्जा है। मुझे उससे यह मिले, ऐसी अपेक्षा है। प्रेम में कब्जा कैसा? प्रेम तो दान है। जहां संसार के प्रति प्रेम असफल होता है, वहां परमात्मा के प्रति प्रेम जागता है। बच्चे को प्रेम के प्रति अभी से शिक्षा दी जानी चाहिए, क्योंकि आने वाले वक्त में उनके लिए यह बड़ा सहारा होगा।

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